Sunday 31 January 2016

विरह

प्रेम जगावै विरह को, विरह जगावै पीउ, पीउ जगावै जीव को, जोइ पीउ सोई जीउ'

: संत कवी कबीरदास

यज्ञ म्हणजे समर्पणाच्या भावनेने परमेश्वरास  स्मरून  केलेले पवित्र कार्य ।

आनंद साधना पृष्ठ ११४


अग्निः वै प्राणः ।
प्राण हे अग्निचेच स्वरुप आहे आणि म्हणुनच जेव्हा शरीरातून प्राण निघून जातात तेव्हा शरीर थंड पडते . (पृष्ठ ११५)

नामजप यज्ञ
अग्नि : विरहाग्नि
हवन द्रव्य : नाम
साधन : प्रेम
दैवत : परमात्मा (अनिरुद्ध )
फल : आत्मविश्वास व मनः शुद्धि

भगवंताचे नामस्मरण जेव्हा भगवन्तावरिल प्रेमामुळे नियमितपणे केले जाते तेव्हा अत्यंत सहज रित्या हा यज्ञ संपन्न होत असतो .
मात्र त्यासाठी "मला परमात्मा हवा " ही भावना व भेटीची व्याकुळता असेल तरच " विरहाग्नि " स्थापन होतो आणि त्यात भगवंताच्या पवित्र नामाचे हवन होऊ लागते .
(आनंद साधना )

अब हमारे प्यारे सद्गुरुने विरहाग्नि प्रज्वलित की है  ।
विरह में पीड़ा होती है ।
लेकिन यही पीड़ा , यही अग्नि हमारे प्रेम को और निखारेगी ।
विरह जीव के अन्दर प्यास निर्माण करता है , यही प्यास जिव को जगाती है ।
अन्यथा जीव व्यर्थ की चीजों में उलझा रहता है । सोया रहता है । सद्गुरुने कितना भी कहा ( बाळान्नो, गधड्यान्नो ...) तो मानने को मन तयार नहीं होता ।  अब सद्गुरु हमें जगा रहें है ।
विरह बढता है तो बढ़ते जाये ।
ईस अग्निमें स्व अहंकार बापू जलता जाए । तेरी याद तेरा नाम मन स्मरता जाये । बस तू याद रहे , मन  स्वयं को भूल ही जाए ।

हम जितना प्रेम करते है उससे अनंत गुना प्रेम अनिरुद्ध राम हमसे करते है ।  अपितु जो हम प्रेम करना सीखे है वोह उसी की देन है ।
जिसने अपना जन्म ही भक्तों के उद्धार के हेतु लिया उसे अपने बच्चों से दूर रहते भी कितने कष्ट पडते होंगे । वोह तो दिन रात हमारा ही स्मरण करता रहता है। हम आँखे होकर भी अंधे कान होंकर भी बहरे और जीभ होकर भी गूँगे होकर उसके सामने खडे रहते है ।

हे मेरे मालिक
जीवन के तारण हार
एकमेव आप्त
आपही केवल उचित अनुचित जानते है ।
आपकी यह लीला भी बहुत ही सुन्दर है ।
विरह बडा मालिक
लेकिन ईस बार ऐसे आ रह
की जाने का नाम ना निकले ।

।। हरि ॐ ।।
।। श्री राम ।।
।। अंबज्ञ ।।
डॉ निशिकांतसिंह विभुते

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