Sunday 13 July 2014

विरह का अग्नि : अनिरुद्ध प्रेम

प्रेम जगावै विरह को, विरह जगावै पीउ, पीउ जगावै जीव को, जोइ पीउ सोई जीउ'  : संत कवी कबीरदास यज्ञ म्हणजे समर्पणाच्या भावनेने परमेश्वरास स्मरून केलेले पवित्र कार्य । आनंद साधना पृष्ठ ११४ अग्निः वै प्राणः । प्राण हे अग्निचेच स्वरुप आहे आणि म्हणुनच जेव्हा शरीरातून प्राण निघून जातात तेव्हा शरीर थंड पडते . (पृष्ठ ११५) नामजप यज्ञ अग्नि : विरहाग्नि हवन द्रव्य : नाम साधन : प्रेम दैवत : परमात्मा (अनिरुद्ध ) फल : आत्मविश्वास व मनः शुद्धि भगवंताचे नामस्मरण जेव्हा भगवन्तावरिल प्रेमामुळे नियमितपणे केले जाते तेव्हा अत्यंत सहज रित्या हा यज्ञ संपन्न होत असतो . मात्र त्यासाठी "मला परमात्मा हवा " ही भावना व भेटीची व्याकुळता असेल तरच " विरहाग्नि " स्थापन होतो आणि त्यात भगवंताच्या पवित्र नामाचे हवन होऊ लागते . (आनंद साधना ) अब हमारे प्यारे सद्गुरुने विरहाग्नि प्रज्वलित की है । विरह में पीड़ा होती है । लेकिन यही पीड़ा , यही अग्नि हमारे प्रेम को और निखारेगी । विरह जीव के अन्दर प्यास निर्माण करता है , यही प्यास जिव को जगाती है । अन्यथा जीव व्यर्थ की चीजों में उलझा रहता है । सोया रहता है । सद्गुरुने कितना भी कहा ( बाळान्नो, गधड्यान्नो ...) तो मानने को मन तयार नहीं होता । अब सद्गुरु हमें जगा रहें है । विरह बढता है तो बढ़ते जाये । ईस अग्निमें स्व अहंकार बापू जलता जाए । तेरी याद तेरा नाम मन स्मरता जाये । बस तू याद रहे , मन स्वयं को भूल ही जाए । हम जितना प्रेम करते है उससे अनंत गुना प्रेम अनिरुद्ध राम हमसे करते है । अपितु जो हम प्रेम करना सीखे है वोह उसी की देन है । जिसने अपना जन्म ही भक्तों के उद्धार के हेतु लिया उसे अपने बच्चों से दूर रहते भी कितने कष्ट पडते होंगे । वोह तो दिन रात हमारा ही स्मरण करता रहता है। हम आँखे होकर भी अंधे कान होंकर भी बहरे और जीभ होकर भी गूँगे होकर उसके सामने खडे रहते है । हे मेरे मालिक जीवन के तारण हार एकमेव आप्त आपही केवल उचित अनुचित जानते है । आपकी यह लीला भी बहुत ही सुन्दर है । विरह बडा मालिक लेकिन ईस बार ऐसे आ रह की जाने का नाम ना निकले । ।। हरि ॐ ।। ।। श्री राम ।। ।। अंबज्ञ ।। डॉ निशिकांतसिंह विभुते -- Sent from Fast notepad

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